निकाय चुनाव के आरक्षण को लेकर योगी सरकार की चूक या कुछ और, विपक्षी दल जानें क्या लपके मुद्दे


उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने यूपी निकाय चुनाव के लिए ओबीसी आरक्षण का नोटिफिकेशन जारी किया तो तभी से कयास लगाए जाने लगे थे कि मामला फंसेगा। कारण ये था कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्देशित ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूले के बिना ये आरक्षण तय किए गए थे और जाहिर था मामला कोर्ट में जाना तय था। हुआ भी यही। हाईकोर्ट में तमाम अपीलें दाखिल हो गईं और कई दिनों की सुनवाई के बाद इस अहम मुद्दे पर हाईकोर्ट ने बड़ा फैसला सुना दिया। कोर्ट ने साफ किया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्देशित ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूले के ओबीसी आरक्षण निर्धारित नहीं किया जा सकता। हां, चूंकि इस प्रक्रिया में समय अधिक लगेगा लिहाजा बिना ओबीसी आरक्षण के सरकार और राज्य निर्वाचन आयोग निकाय चुनाव कराएं। हाईकोर्ट का आदेश आते ही योगी सरकार की तरफ से एक अहम बयान आया। इसमें सीएम योगी ने इसमें साफ कर दिया कि प्रदेश सरकार नगरीय निकाय सामान्य निर्वाचन के परिप्रेक्ष्य में आयोग गठित कर ट्रिपल टेस्ट के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग के नागरिकों को आरक्षण की सुविधा उपलब्ध करायेगी। इसके बाद ही निकाय चुनाव होंगे। यही नहीं उन्होंने ये भी कहा कि अगर जरूरी हुआ तो राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट में में अपील भी करेगी।
सरकार के इस बयान से एक बात तो साफ हो गई है कि उत्तर प्रदेश में निकाय चुनाव लटक गए हैं। लेकिन इस पूरे मामले ने उत्तर प्रदेश में ओबीसी आरक्षण का जिन्न जरूर बाहर आ गया। तमाम विपक्षी दलों ने इस मुद्दे को फौरन लपक लिया। सपा, बसपा, कांग्रेस, रालोद आदि हाईकोर्ट के आदेश का स्वागत करते नजर आए और योगी सरकार को पिछड़ी जातियों का विरोधी करार देने लगे। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने तो यहां तक कह दिया कि भाजपा दलितों का आरक्षण भी छीनेगी। उन्होंने कहा कि आज आरक्षण विरोधी भाजपा निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण के विषय पर घड़ियाली सहानुभूति दिखा रही है। आज भाजपा ने पिछड़ों के आरक्षण का हक छीना है, कल भाजपा बाबा साहब द्वारा दिए गये दलितों का आरक्षण भी छीन लेगी। आरक्षण को बचाने की लड़ाई में पिछडों व दलितों से सपा का साथ देने की अपील है। वहीं बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी योगी सरकार को घेरते हुए ट्वीट में कहा कि हाईकोर्ट का फैसला सही मायने में भाजपा व उनकी सरकार की ओबीसी एवं आरक्षण-विरोधी सोच व मानसिकता को प्रकट करता है। कुल मिलाकर ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर सभी दल खुद को पिछड़ों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने की रेस में शामिल हो गए हैं।
बहरहाल, हाईकोर्ट के ताजा आदेश की बात करें तो जिस तरह से विपक्षी दल योगी सरकार को घेरने में जुटे हैं, ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वाकई योगी सरकार से ओबीसी आरक्षण को लेकर राजनीतिक चूक हो गई? या कहानी कुछ और ही है। इसे समझने के लिए उत्तर प्रदेश की सियासत को समझना जरूरी है, जिसमें सत्ता की डोर पिछड़ों के हाथ मानी जाती है। यूपी में पिछड़ी जातियों का कुल आबादी का 52 फीसदी हिस्सा है। 90 के दशक के बाद से देश में ओबीसी सियासत ने तेजी पकड़ी। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह सहित कई बड़े पाम सामने आए। आज स्थिति ये है कि किसी भी दल को देख लीजिए, वहां पिछड़ी जाति के नेताओं की मजबूत हिस्सेदारी रहती है।
ताजा ओबीसी आरक्षण मामले की टाइमिंग पर नजर डालें तो यूपी में ये मामला तब आया है, जब पूरे देश में विपक्षी दल ओबीसी पॉलिटिक्स में ताकत झाेंक रहे हैं। नए साल की शुरुआत में बिहार में नीतीश सरकार जातिगत जनगणना शुरू कर रही है। झारखंड, महाराष्ट्र और ओडिशा में भी विधानसभा से प्रस्ताव पारित हो चुका है। वहीं केंद्र द्वारा अपर कास्ट को 10 फीसदी आरक्षण देने के फैसले के बाद तमिलनाडु में सरकारी नौकरियों में ओबीसी आरक्षण का कोटा बढ़ाने का प्रस्ताव सामने आ चुका है। इसी तरह छत्तीसगढ़ भी पिछड़ा वर्ग आयोग बना चुका है। तो ऐसी स्थिति में सवाल ये उठता है कि उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार से क्या ओबीसी आरक्षण को लेकर सियासी चूक हो गई?

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