हाईकोर्ट खबर, फांसी की सजा जानें कैसे बदल गयी आजीवन कारावास में,क्या है पूरी कहांनी


इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुलंदशहर के बरारी नरसंहार के दोषी रनवीर सिंह (75) को निचली अदालत से मिली सजा-ए-मौत को उम्रकैद में तब्दील कर दिया है। रनवीर ने 15 साल पहले सगे छोटे भाई के परिवार के सात सदस्यों की हत्या करके उसके वंश का सफाया कर दिया था। कोर्ट ने दोषी की सजा उम्र का हवाला देते हुए घटाई, लेकिन इसे पुलिस की विवेचना और उसके पर्यवेक्षण का बेहद खराब उदाहरण भी करार दिया।
इसी कारण दो आरोपी निचली अदालत से बरी हो गए थे।न्यायमूर्ति अश्वनी कुमार मिश्रा और एसएएच रिजवी की खंडपीठ ने हत्यारे रनवीर की ओर से मृत्युदंड के खिलाफ दाखिल अपील पर यह फैसला सुनाया। यह नृशंस वारदात बुलंदशहर के औरंगाबाद थाना क्षेत्र के बरारी गांव में 28 जुलाई 2008 की रात दो बजे सुखवीर सिंह (55) की ट्यूबवेल पर गला काटकर हत्या से शुरू हुई थी।
कुछ देर बाद घर में सो रही सुखवीर की पत्नी सुरेमबाला (52), बेटे सूर्यप्रताप सिंह (26), सूर्यप्रताप की पत्नी ममता सिंह (24), दूसरे बेटे अभिषेक (25), अभिषेक की पत्नी लता (24) व सूर्यप्रताप के बेटे चीकू (02) को भी मार डाला गया। लता तब नौ माह की गर्भवती भी थी।
सुखवीर के भाई मनवीर उर्फ संजीव कुमार ने अज्ञात कातिलों के खिलाफ एफआईआर लिखाई, लेकिन पुलिस ने जांच में पाया कि इस नृशंस नरसंहार को उसके भाई रनवीर सिंह ने ही अंजाम दिया है। इसकी साजिश के आरोप में रनवीर की पत्नी देवेंद्री और एफआईआर लिखाने वाले भाई मनवीर सिंह को भी गिरफ्तार किया गया था। हालांकि, साक्ष्यों के अभाव में निचली अदालत ने इन दोनों को बरी कर दिया था। रनवीर के नाबालिग बेटे को भी साजिश में शामिल बताते हुए मामला किशोर न्यायालय को संदर्भित किया गया था।
आठ साल चले विचारण के बाद बुलंदशहर के जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने वर्ष 2016 में रनवीर को दोषी मानते हुए मृत्युदंड की सजा सुनाई थी। इसके खिलाफ रनवीर ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। कोर्ट ने पाया कि फिलहाल रनवीर की उम्र 75 हो चुकी है, ऐसे में मृत्युदंड देना उचित नहीं है। इसी के साथ कोर्ट ने सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया।
हाईकोर्ट ने रनवीर सिंह की फांसी की सजा तो उम्रकैद में बदल दी, लेकिन निचली अदालत से उस पर लगा जुर्माना एक लाख बढ़ा दिया। निचली अदालत ने एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया था, जिसे हाईकोर्ट ने बढ़ाकर दो लाख रुपये कर दिया है।
जघन्यतम वारदात की विवेचना, वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की ओर से निगरानी में बरती गई ढिलाई और निचली अदालत की ओर से त्वरित और पारदर्शी सुनवाई को लेकर हाईकोर्ट ने कड़ी नाराजगी जताई। 44 पेज के फैसले में हाईकोर्ट ने विशेष टिप्पणी करते हुए कहा कि जघंन्य हत्या के इस मामले में पुलिस ने त्वरित कार्रवाई नहीं की। पुलिस घटनास्थल पर अगर तत्काल डॉग स्क्वॉड को बुलाती तो पोस्टमार्टम से अंत्येष्टि तक काफी साक्ष्य जुटा सकती थी।
अंत्येष्टि के बाद भी पुलिस अधिकारियों ने जिस तरह कामचलाऊ तरीके से जघन्य वारदात को लिया, उससे अपराधियों के चेहरे बेनकाब होने में लंबा वक्त लग गया। ऐसा लगता कि विवेचक ने साक्ष्य जुटाने में गंभीरता ही नहीं दिखाई। क्राइम सीन से पता चल रहा है कि मौके पर 12 बोर के कारतूस का एक खोखा बरामद हुआ, जबकि रिकवरी 315 बोर की कंट्री मेड पिस्टल की दिखाई गई।
पुलिस ने किसी अपराधी की कस्टडी रिमांड भी नहीं ली। सीओ ने भी पर्यवेक्षण में ढिलाई बरती। यह प्रक्रिया आपराधिक न्याय प्रशासन को झुठलाने जैसी है। निचली अदालत भी त्वरित और पारदर्शी न्याय दिलाने में विफल रही है। कोर्ट ने कहा कि ऐसा लगता है कि जांच एजेंसियों के पास कानूनी जानकारी नहीं है। इतने जघन्य मामले में किसी योग्य अधिकारी को जांच के लिए लगाना चाहिए था, जो नहीं किया गया।

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