शोक श्रद्धांजलि निधन सन्दर्भ:पं. हरिराम द्विवेदी 'पंछी आवा उड़ि चला ओहि देसवा ना 'का गीतकार हमें छोड़कर चला गया - कमलेश राजहंस


भोजपुरी साहित्य में अपने लोककंठी गीतों से अक्षय यश अर्जित करने वाले अप्रतिम कवि पं. हरिराम द्विवेदी के निधन की खबर से सोनभद्र का अश्रुपूरित लोकमानस पंडित हरिराम द्विवेदी (हरिभैया) की अन्यान्य सुरंग सुधियों की भूल भुलैया में मर्माहत होकर खो गया। शोक संतप्त राष्ट्रीय कवि कमलेश राजहंस अत्यंत भावुक हो उठे। अपने करुणाविगलित स्वरों में मूर्धन्य साहित्यकार एवं गीतकार हरिराम द्विवेदी को श्रद्धांजलि देते हुए कहा  कि 
' पंछी आवा उड़ि चला वोहि देसवा ना '..के गीतकार  ने अंततः इसे चरितार्थ कर दिया। हरिराम द्विवेदी के निधन के साथ ही 'देश' के रूप में तेजी से परिवर्तित  'देस' की लोकछवि अपनी आखिरी झलक देकर क्रूर काल की कठोरता में तिरोहित हो गई। गंगा में रोज डुबकी लगाने वाली और रोज गंगाजल पीने वाली पुरानी पीढ़ी की भागीरथी संवेदना एकाएक सूख गई।
 चलती - फिरती, गुनगुनाती,  मुस्कराती, बतियाती, रिश्ते को सहेजती, घर - आंगन, 
खेत - खलिहान, तीज - त्यौहारों की ऊष्मा को अनवरत अपने जीवन में उतारती माटी की एक जीवंत मूरत थे हरिराम, कृष्ण की तरह रसमय और
राम की तरह मर्यादामय।अपनी कृतियों से अमर हो चुके हरिराम और उनका साहित्य, लोकजीवन को उसके खोए , पाए और छूटे की याद दिलाता रहेगा।
भोजपुरी काव्य साहित्य में उनका आभामंडल पके गेहूं और धान की वह सुनहरी आभा है जिसके समक्ष सत्ता और समृद्धि की सारी चमक निस्तेज हो जाती है।
हर होंठो पर दूध - भात, हर पेट को रोटी और हर मस्तक के सम्मान की कामना वाले विरले साहित्यकार थे - हरिरिम द्विवेदी।  अपने 
 अटूट संबंधों और रिश्तों के संदर्भ से श्री राजहंस ने हरिराम के निधन को अपने जीवन की अपूरणीय क्षति बताया।
 कवि एवं समीक्षक डॉ. दिनेश दिनकर ने कहा कि पं. हरिराम द्विवेदी  विधाता के उस सांचे में ढले थे जिसका उपयोग विधाता देश - काल - वातावरण की आवश्यकता के अनुसार विशिष्टों को धरती पर भेंजने के लिए करते हैं। हरिराम के केवल हरिराम ही हो सकते हैं  - मानों भारत की सामासिक संस्कृति ही साकार हरिराम हो गई हो।
वे न केवल काशिका और भोजपुरी के बल्कि खड़ीबोली हिन्दी साहित्य के
इनसाइक्लोपीडिया हैं, मानों काव्य के प्रेमचंद हैं।  भारत की संपूर्ण पहचान की खोज करने वाले शोधार्थियों का शोधप्रबंध
हरिराम और उनके साहित्य के बिना अधूरा रहेगा। अपनी यादों में हरिभैया को बसाए दिनकर ने कहा वह एक अतृप्त दुलार थे, जिसकी ऊष्मा आजीवन मुझे चैत की खुशनुमा भोर की धूप जैसे सेंकती रहेगी।
 कबीर की तरह ही अक्खड़ , मोक्ष के अधिकारी हरिभैया ने ' ज्यों की त्यों धर दीनि चंदरिया ' को अपने जीवन में चरितार्थ कर दिया । आज वे किसी पीढे या आसन पर नहीं बल्कि लोकमानस के सिंहासन पर विराजमान हैं।

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