सजायाफ्ता कैदीयों को तीन बार पेरोल देने पर हाईकोर्ट शख्त, जानें क्या दिया आदेश


इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने कोरोना काल में फांसी के चार सजायाफ्ता बंदियों को तीन बार पैरोल पर छोड़े जाने पर सख्त रुख अख्तियार किया है। हाईकोर्ट ने मुख्य सचिव को जांच करवाने के निर्देश के साथ निजी हलफनामे पर रिपोर्ट तलब की है। साथ ही पूछा है कि प्रदेश में ऐसे कितने बंदी रिहा किए गए, जो उम्रकैद या सात साल से अधिक के सजायाफ्ता हैं? जबकि कोरोना काल के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ  सात साल तक के सजायाफ्ता बंदियों को समुचित वक्त के लिए पैरोल या अंतरिम जमानत पर छोड़ने के निर्देश सरकार को दिए थे।
अदालत ने सरकार के इस तरीके पर नाखुशी जाहिर की जिसमें लगातार तीन बार फांसी के सजायाफ्ता पैरोल पर छोड़े गए और सुप्रीम कोर्ट के 23 मार्च 2020 के आदेश के दुरुपयोग को लेकर राज्य का कोई प्राधिकारी इस गंभीर नाकामी को रोकने को सतर्क नहीं था। जबकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला सिर्फ सात साल तक की सजा पाने वालों को लेकर था। न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति विवेक वर्मा की खंडपीठ ने इस अहम टिप्पणी के साथ सजायाफ्ताओं को सीजेएम फैजाबाद की अदालत के समक्ष तुरंत सरेंडर करने को कहा है। इसमें नाकाम होने पर सीजेएम को उन्हें हिरासत में लेने का निर्देश दिया और 20 दिसंबर को अनुपालन रिपोर्ट तलब की है। कोर्ट ने यह आदेश कृष्ण मुरारी उर्फ  मुरली, राघव राम, काशी राम और राम मिलन की फांसी की सजा की पुष्टि के लिए वर्ष 2000 में भेजे गए संदर्भ व अपीलों पर दिया। 
अपीलों पर सुनवाई के दौरान सरकारी वकील ने कोर्ट को बताया कि सुप्रीम कोर्ट के 23 मार्च 2020 के आदेश के अनुपालन में इन चारों अपीलकर्ताओं को तीन बार सरकार ने 60-60 दिन की पैरोल पर रिहा किया। कोर्ट के यह पूछने पर कि फैजाबाद की सत्र अदालत ने 21 दिसंबर 1999 को उन्हें हत्या के जुर्म में फांसी की सजा सुनाई है, वो सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मदद से कैसे पैरोल पर छोड़े गए? उनके अधिवक्ता तर्कसंगत जवाब नहीं दे सके। कोर्ट ने मामले का संज्ञान लेकर अगली सुनवाई 20 दिसंबर को नियत की है।

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